Monday, June 2, 2008

अरमान

बड़े अरमान से बुने थे
सपने जो जीवन के
स्याह परछाइयों मे
पुरा अरमान होता रह गया
मिटटी की सोंधी महक
धुल मे गुजरे साल थे
खेतिहर कहलाने की चाह मे
गैरमजरुआ भूमि पर
धान होता रह गया
जिन्दगी की धुप छाह
गुजरे जिसकी आश मे
किश्तों मे पुरा वह
मकान होता रह गया
सबकुछ लुटा कर चाह थी
जिन्दगी को जानने की
कहने सुनाने मे ही
सुबह से शाम होता रह गया

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