बड़े अरमान से बुने थे
सपने जो जीवन के
स्याह परछाइयों मे
पुरा अरमान होता रह गया
मिटटी की सोंधी महक
धुल मे गुजरे साल थे
खेतिहर कहलाने की चाह मे
गैरमजरुआ भूमि पर
धान होता रह गया
जिन्दगी की धुप छाह
गुजरे जिसकी आश मे
किश्तों मे पुरा वह
मकान होता रह गया
सबकुछ लुटा कर चाह थी
जिन्दगी को जानने की
कहने सुनाने मे ही
सुबह से शाम होता रह गया
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